राम ,कृष्ण , बुद्ध, महावीर और गाँधी के देश मे पिछली सदी में अंग्रेजों के मार्गदर्शन में एक 'नफरत' का पौधा लगाया गया था वह अब वटवृक्ष बन गया है।
आज उस वटवृक्ष की छाँव में खड़ा हमारा बहुसंख्यक समाज अगर बलात्कारियों के समर्थन में खड़ा है, हत्यारों के समर्थन में खड़ा है, माब लिंचिंग के समर्थन में खड़ा है, धर्माधता के समर्थन में खड़ा है, जातिवाद के समर्थन में खड़ा है तो वह हमारे प्रजातंत्र की हार है।
सभ्य समाज अगर स्त्री के विरोध में खड़ा है, छात्रों के विरोध में खड़ा है, विश्वविद्यालयों के विरोध में खड़ा है, दलित के विरोध में खड़ा है, आदिवासी के विरोध में खड़ा है, मुसलमान के विरोध में खड़ा है, ईसाई के विरोध में खड़ा है, तो यह हमारे संविधान की हार है।
आज अगर गोडसे , सावरकर , गोलवलकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसों को सम्मानित किया जा रहा है जो स्वतंत्रता आन्दोलन के खिलाफ थे, तो यह महात्मा गाँधी , सरदार भगत सिंह , डॉ बाबा साहब आम्बेडकर, चन्द्रसेखर आज़ाद, पंडित नेहरु, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल , डॉ राजेंद्र प्रसाद, तिलक, गोखले, लाला लाजपतराय, अशफाकुल्ला खान, डॉ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे हमारे पुरखों की हार है।
स्वतंत्रता के ७० वर्ष बाद आज अगर देश की १२५ करोड़ जनता से उनके भारत के नागरिक होने का सबूत माँगा जा रहा है, भारत के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व प्रधान मंत्री के परिवार को भारतीय नागरिक नहीं माना जा रहा है, भारतीय सेना में ३५ वर्ष सेवा दे चुके व्यक्ति को भारत का नागरिक नहीं माना जा रहा है तो यह हमारे संविधान निर्माताओं की हार है।
अब जरूरत है की हम आवाज़ दें की हम एक हैं।
हम आवाज़ दें की हम मोहब्बत की पैदाइश हैं, नफरत की नहीं।
" नफरतों पर हर तरफ से वार होना चाहिए
नफरतों को देश से तड़ीपार होना चाहिए।"
नमन
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