Friday, 27 December 2019

इश्क़ में डूबा शहर



किसी के आसरे जीने से तो बेहतर है मर जाएँ
बात जब मुल्क की आए तो शोलों से गुज़र जाएँ।
अगर हम जाग उठे तो तुम सुन लो ऐ दिल्लीवालों
जगह न पाओगे की भागकर कैसे - किधर जाएँ।

हमें मत छेड़िए साहब हमें ललकारिए भी मत
कहीं ऐसा न हो कि आप तिनकों सा बिखर जाएँ।
यह जो कुर्सी पर बैठे हो हमारी मेहरबानी है
अगर हम सोच भी लें तो ये कपडे तक उतर जाएँ।
नमन

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सुकून मुझको मिला उसकी बेवफ़ाई से
इश्क़ होने लगा है अपनी ही तन्हाई से।

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जल रही धूप में एक शजर चाहिए
ग़म की राहों में चाहत का घर चाहिए
लू यहाँ चल रही नफरतों की ‘नमन’
इश्क़ में डूबा हम को शहर चाहिए।



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