----जवाहरलाल नेहरू के कार्यों की
शोधपरक विवेचना---
पंडित
जवाहरलाल नेहरु आधुनिक भारत के निर्माता है. अतः पंडित जवाहरलाल नेहरु के कार्यों
के मूल्यांकन और उनकी विवेचना स्वाभाविक ही है. हम सब इतिहास पढ़ते हैं, हममे से कुछ लोग इतिहास लिखते भी है पर महान वे हैं जो
इतिहास बना जाते हैं. पंडित जवाहरलाल नेहरु ने न केवल इतिहास पढ़ा बल्कि इतिहास लिखा और इतिहास रचा भी. Glimpses of World History और Discovery of India जैसी विश्व प्रसिद्द
पुस्तकों के लेखक पंडित नेहरु राजनेता होने के साथ-साथ विद्वान् और महान द्रष्टा
थे.
आधुनिक भारत
के निर्माता पंडित नेहरु के महान कार्यों के मूल्यांकन में मैं खुद को असमर्थ पाता
हूँ. फिर भी पंडित नेहरु की समकालीन महान विभूतियों के संस्मरणों के माद्यम से हम
पंडित नेहरु को समझने का प्रयत्न अवश्य करेंगे.
सरदार भगत
सिंह ने लाहौर के समाचार पत्र ‘पीपल्स’
में दिनांक २९ जुलाई १९३१ के अंक में लिखा- “हमारे नेता किसानो के
आगे झुकने की जगह अंग्रेजों के आगे घुटने टेकना जादा पसंद करते है. पंडित जवाहरलाल
को छोड़ दे तो क्या आप किसी भी एक नेता का नाम ले सकते हैं जिसने किसानो और मजदूरों
को संगठित करने की कोशिश भी की हो?” यह लेख ८ मई १९३१ को
अलाहाबाद से छपने वाले “अभ्तुद्य” में भी प्रकाशित हुआ था. यह लेख सरदार भगत सिंह उस व्यक्ति के बारे में
लिख रहे थे जो न केवल एक धनाढ्य घर में पैदा हुआ था बल्कि जिसकी शिक्षा दीक्षा तक
सुदूर यूरोप में हुई थी.
ब्रिटेन से
अपनी शिक्षा पूरी करके लौटे जवाहरलाल अपनी वकालत के समय से ही थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ गए थे. थियोसोफिकल सोसायटी की
अध्यक्षा डॉ एनी बेसेंट और उसके सेक्रेटरी डॉ भगवान दास ने नवयुवक जवाहरलाल नेहरु
को बहुत प्रभावित किया. १३ अप्रेल १९१९ को जालियांवाला बाग़ में जनरल डायर द्वारा
किये गए नरसंहार ने पंडित नेहरु को स्वतंत्रता आन्दोलन में कूदने के लिए मजबूर कर
दिया.
यहाँ मैं एक
बात और बताना चाहूँगा की पंडित नेहरु और बाबू सुभाषचन्द्र बोस की सोच एक जैसी थी.
दोनों सोशिलिज्म के जादा नज़दीक थे. दोनों विदेश में शिक्षित थे और युवा थे. सुबाष बाबू पंडित नेहरु से उम्र में ८ वर्ष छोटे थे और उनसे
अत्यधिक प्रभावित थे. सन १९२८ में ब्रिटिश शासकों ने कांग्रेस नेताओं से पूंछा की
अगर हम सत्ता आपके हाथ में दे दें तो आप शासन कैसे चलाओगे? ब्रिटिश
शासकों के प्रश्न का उत्तर खोजने के हेतु पंडित मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक
कमिटी बनायीं गयी. उसमे एम् आर जयकर, एम् एस आने, सरदार मंगल सिंह, एस एम् जोशी, सर इमाम अली, साकीब कुरैशी, जवाहर
लाल नेहरु और सुभाषचन्द्र बोस आदि सदस्य थे. इस रिपोर्ट
में पूर्ण स्वराज की बात नहीं कही गई थी अतः सुबाष बाबू और जवाहरलाल दोनों ने इसके
पक्ष में वोट देने या सहमति देने से इनकार कर दिया था. यही रिपोर्ट बाद में नेहरू
रिपोर्ट के नाम से प्रसिद्द हुई.
सुबाषचन्द्र
बोस पंडित नेहरु से कितना प्रभावित थे और उनका कितना सम्मान करते थे उसका एक और
उदाहरण आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के समय मिल जाता है. आज़ाद हिन्द फौज के गठन के
समय सुबाष बाबू ने उसमे जवाहरलाल नेहरु के नाम पर 'नेहरु रेजिमेंट' बनाई.
स्वतंत्रता
आन्दोलन में पंडित नेहरु का योगदान अतुलनीय था यह स्वयं सरदार पटेल ने अपने एक
पत्र में लिखा है. अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले उन्होंने
नेहरू को लेकर जो कहा वो किसी वसीयत की तरह है। 2 अक्टूबर 1950
को इंदौर में एक महिला केंद्र का उद्घाटन करने गये पटेल ने अपने
भाषण में कहा-अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही
हमारे नेता हैं। बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा
भी की थी। अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें
और मैं एक गैरवफादार सिपाही नहीं हूं।
ओशो ने
पंडित नेहरु को बाल ह्रदय, कवि जैसे कोमल
भावनाओं वाला, निर्मल चरित्र का विद्वान व्यक्ति कहा है. कभी-कभी
अपने स्वयं के खिलाफ होते थे पंडित नेहरु. पंडित नेहरु ने ‘चाणक्य’
नाम से स्वयं अपने खिलाफ कई कई लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समय
समय पर लिखे. विशेषकर स्वतंत्रता के बाद जब उनके हाथों में देश की बागडोर आई तो वे
डरे रहते थे की कहीं वे डिक्टेटर न बन जाएँ.
पंडित नेहरु
ने इस देश को एक नया धर्म दिया, जिसका
नाम है प्रजातंत्र. अंग्रेजों ने कांग्रेस को भारत की बागडोर सौंपी थी. पंडित
नेहरु और उनके सहयोगी अगर चाहते तो सोवियत रूस जैसी एक दलीय जनतांत्रिक व्यवस्था
कायम कर सकते थे, वैसा संविधान बना सकते थे और उसके माध्यम
से लगातार कांग्रेस भारत पर शासन कर सकती थी. परन्तु पंडित नेहरु और उनके
सहयोगियों ने बहुदलीय जनतांत्रिक प्रणाली को अपनाया.
यह पंडित
नेहरु और संविधान सभा के विद्वान सदस्यों की काबिलियत ही थी की हमारी संविधान सभा ने
विश्व का सर्वश्रेष्ठ संविधान बनाया. साथ ही भारत पूरी सहजता से अपने संविधान को
लागू कर सका. सिर्फ संविधान बना देना काफी नहीं था, उसके क्रियान्वयन के लिए व्यवस्थापकीय ढांचा बनाने की
जरुरत थी. आवश्यकता पूरे संवैधानिक ढांचे को खडा करने, उसके
विकास और उनमे विश्वास स्थापित करने की थी. पंडित नेहरु के अथक प्रयासों से देश ने
न केवल संसदीय प्रणाली को अपनाया बल्कि उसका विकास किया और उसमे भरोसा स्थापित
किया.
एक तरफ
पंडित नेहरु जहाँ अपने सबसे वरिष्ठ और प्रबुद्ध सहयोगी सरदार पटेल के साथ लगभग ५५०
स्वायत्त रियासतों के भारत में विलीनीकरण के काम में लगे हुए थे, वहीँ दूसरी तरफ
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद और संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के
चेयरमैन डॉ भीमराव आम्बेडकर के साथ भारत के सुदूर भविष्य में आनेवाली कठिनाईयों का
हल भी ढूँढ रहे थे. एक तरफ डॉ आंबेडकर द्वारा लाये गए प्रस्तावों पर संविधान सभा
लगातार चर्चा कर रही थी, अनुत्तरित
प्रश्नों के उत्तर ढूंढ रही थी, दूसरी तरफ भारतीय सेना जम्मू
कश्मीर सीमा पर पकिस्तान द्वारा भेजे गए कबायलियों से लड़ रही थी. एक तरफ पंडित
नेहरु प्लानिंग कमीशन, ज्युडिशियरी, ब्यूरोक्रेसी,
केंद्र राज्य संबंध, रेवेन्यु शेयरिंग जैसे
अनेक गूढ़ प्रश्नों के उतने ही गूढ़ उत्तर ढूँढ रहे थे, वहीँ
दूसरी तरफ वे पाकिस्तान से आये हुए हिन्दुओं के रहने, खाने
और उन्हें पुनः बसाने के काम में दिन रात एक कर रहे थे.
इतना सब
करते हुए उनसे उन समय काल और परिस्थितियों में मानवीय गलतियाँ होना स्वाभाविक है.
इतने सारे मोर्चों पर एक साथ जूझता हुआ एक शक्श और चारों तरफ से आ रही सूचनाओ के
सही मूल्यांकन में गलती हो जाना स्वाभाविक है. आज अलग समय काल परिस्थितियों में
कोई अगर पंडित नेहरु और उनके सहयोगियों पर आरोप लगाता है तो उसे ध्यान रखना होगा
की किन समय, काल और परिस्थितियों में पंडित नेहरु और उनके सहयोगियों ने वे निर्णय
लिए.
पंडित नेहरु
पर दो बड़े आरोप संघ परिवार हमेशा लगाता रहा है. एक- जम्मू कश्मीर का कुछ भाग
पाकिस्तान के कब्ज़े में चले जाना और दूसरा आरोप चीन की लडाई में लद्दाख सीमा का
काफी भाग चीन के कब्ज़े में चले जाना.
भारत के
तत्कालीन वायसराय माउन्टबैटन और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल कश्मीर में सेना भेजने
के एकदम खिलाफ थे. सरदार पटेल ने माउन्टबैटन और पंडित नेहरु के साथ अपनी मीटिंग
में स्पष्ट रूप से कहा की कश्मीर पाकिस्तान में जाता है तो जाये, यहाँ ५५० रियासते क्या कम हैं की एक और का सर दर्द मैं
अपने सर पर लूं. माउन्टबैटन का कहना था कबायलियों की ताकत और श्रीनगर की ज़मीनी
हकीकत से हम सब अनभिग्य हैं अतः सैनिकों की जान खतरे में नहीं डाली जा सकती.
वहां श्रीनगर
में जम्मू कश्मीर रियासत के हिन्दुस्तान में विलय के कागज़ साईन करके दिल्ली भेजने
के बाद राजा हरी सिंह अपने मिलिटरी अटैची को अपनी पिस्तौल सौंपते हुए आदेश देते
हैं की कल सुबह अगर हिन्दुस्तानी फौज श्रीनगर नहीं पहुंचती और कबायली श्रीनगर में
घुस आते हैं तो वे उन्हें सोते में ही गोली मार दें. इन परिस्थितियों में पंडित
नेहरु सरदार पटेल और माउन्टबैटन को हिन्दुस्तानी फौज श्रीनगर भेजने के लिए मना
लेते हैं, हिन्दुस्तानी फौज का हवाई जहाज
सुबह की पहली किरण के साथ श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरता है और कुछ ही दिनों में जम्मू
कश्मीर के तीन चौथाई से अधिक भू-भाग पर भारत का कब्ज़ा हो जाता है.
संयुक्त
राष्ट्र संघ पर कुछ जादा ही विश्वास करके पंडित नेहरु जम्मू कश्मीर सीमा पर युद्ध विराम स्वीकार करते
हुए सीमा विवाद पर संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता स्वीकार कर लेते हैं. पंडित
नेहरु के उस एक कदम की वजह और उनके द्वारा
युद्ध विराम स्वीकार कर लिए जाने के कारण जम्मू कश्मीर रियासत का जो भाग आज भी
पकिस्तान के कब्ज़े में हैं उसके लिए हम पंडित नेहरु को दोषी मानते हैं. जबकि जवाहरलाल
नेहरु को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय का श्रेय मिलना चाहिए.
कई मुद्दों
पर पंडित नेहरु के अपने सहयोगियों से मतभेद भी रहे पर इन मतभेदों का प्रभाव पंडित
नेहरु ने कभी आपसी संबंधों पर नहीं पड़ने दिया . भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ
राजेंद्र प्रसाद हिन्दू कोड बिल के एक दम खिलाफ थे और उन्होंने संसद में पारित इस
बिल को दो बार बिना हस्ताक्षर किये लौटाया भी. परन्तु विषय विशेष पर असहमति होते
हुए भी डॉ राजेन्द्र प्रसाद से उनके संबंधों में कभी खटास नहीं आई. असहमति के इस
दौर में भी पंडित जी नियमित रूप से अपनी सुबह की चाय डॉ राजेन्द्र प्रसाद के साथ
पीते रहे.
पंडित नेहरु
ने दुनिया के कई देशों का दौरा किया था. वे जानते थे की कृषि और उद्योग दोनों
क्षेत्रों का विकास करके ही हम भारत को प्रगति के रास्ते पर आगे ले जा पाएंगे.
भारत का सिंचित क्षेत्र बढाने के लिए एक तरफ उन्होने भाखरा नांगल, रिहंद जैसे बांधों के निर्माण को प्राथमिकता दी तो दूसरी
तरफ उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय, कृषि विश्वविद्यालय खोले, सहकारिता आन्दोलन, चकबंदी और ज़मींदारी उन्मूलन करके
किसानो को जोत का हक़ दिलाना जैसे बड़े कदम उन्होंने उठाये.
भारत में
औद्योगिक क्रांति की शुरुवात करते हुए पंडित नेहरु ने बोकारो, भिलाई, हिंदुस्तान मशीन टूल्स जैसे
कारखाने सरकारी क्षेत्र में लगाये. आय.आय.टी. और इंडियन इंस्टिट्यूट आफ
मैनेजमेंट जैसे शिक्षा केंद्र स्थापित किये. ताकि भारत के औद्योगिक विकास हेतु
आवश्यक ज़मीन तैयार हो सकें. बिना परमाणु बिज़ली के हम भारत की बिज़ली की जरुरत पूरी
नहीं कर सकेंगे यह उन्होंने ५० के दशक में ही समझ लिया था और इसी लिए तारापुर
परमाणु बिजलीघर की आधारशिला भी उन्होंने रखी.
१९४७-४८ का
मात्र २९४ करोड़ के बजेट वाले भारत और आज के लगभग १८ लाख करोड़ के वार्षिक बजेट वाले
भारत में ज़मीन आसमान का अंतर है. अपनी ३३
करोड़ की आबादी के अन्न और कपडे के लिए दूसरों पर निर्भर रहने वाला भारत आज १२५
करोड़ की आबादी को अन्न और कपडा दे रहा है बल्कि लाखों करोड़ रु का अन्न और कपड़ा
निर्यात भी कर रहा है. इस विकास की जड़ में नेहरु जी की पञ्च वर्षीय योजनायें रही
हैं. पंडित नेहरु ने अपना पूरा ध्यान कृषि के साथ साथ हिन्दुस्तान के औद्योगिक
विकास पर लगा दिया. बड़े-बड़े बाँध, नहरों का जाल, बिज़ली घरों
की स्थापना, BARC, TAPS,
HAL, HSL, ISRO, IIT, IIM, AIIMS, कृषि विश्वविद्यालय ...आदि सब नेहरु की दूरदृष्टि
का परिणाम हैं.
पंडित नेहरु
अपनी अंतरराष्ट्रीय ज़िम्मेवारियों से अनभिज्ञ नहीं थे. उन्होंने नाटो और वारसा
संधियों के बीच बंटे हुए विश्व को गुटनिरपेक्ष देशों का एक अलग संगठन बना कर एक
नया आधार दिया. भारत की विदेश नीति के वे आधार स्तम्भ रहे. पंडित नेहरु सही मायने
में पूरे विश्व के नेता थे. यह उनकी विदेश नीति की सफलता ही थी की १९६० में भारतीय
सेना भेज कर बिना विश्व समुदाय का विरोध झेले पंडित नेहरु ने गोवा को पोर्तगीज़
शासन से मुक्त कर भारत में शामिल कर लिया.
यह सब करते
हुए शायद उनका ध्यान भारत की सीमाओं की सुरक्षा से शायद हट गया था. यह भी हो सकता
है की वे सोच रहे थे प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से सभी देशों ने सबक
ले लिया है और अब निकट भविष्य में शायद सैन्य शक्ति की उतनी जरुरत न पड़े. भारत पर
चीन के आक्रमण के लिए न वे सामरिक रूप से तैयार थे न मानसिक रूप से. इसका बहुत बड़ा
भुगतान देश को और उन्हें स्वयं करना पडा.
भारत अगर आज
एक सफल जनतंत्र है तो इसका श्रेय निश्चित रूप से पंडित नेहरु को जाता है.
‘नमन’
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