Saturday 15 September 2018

हिन्दी एक संस्कृति है


आज हिंदी दिवस है पूरे विश्व के सभी हिंदी प्रेमियों को हृदय से प्रणाम.

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हिंदी पर मेरा यह  लेख 13 सितंबर 2018  के 'दोपहर' में छपा था...
हिंदी सिर्फ एक भाषा ही नहीं एक संस्कृति है. हिंदी राष्ट्रप्रेम की वह धारा है जिसने पूरे देश को एक सूत्र में पिरो रखा है.
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया हिंदी स्वतंत्र भारत की राजभाषा होगी. संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी.
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाए जाने की परंपरा 1953 से शुरू हुई.
अगर हम हिंदी भाषा और साहित्य के उद्भव काल की बात करें तो पाएंगे की अपभ्रंश के बाद हिंदी भाषा का जन्म हुआ.
इसी अपभ्रंश से ब्रज, अवधी, खड़ी बोली, मैथिली , राजस्थानी आदि का आविर्भाव हुआ. यह परंपरा सातवीं शताब्दी शताब्दी से पूरे वेग के साथ प्रारंभ हो गई.
इसीलिए डॉ रामकुमार वर्मा ने अपभ्रंश से प्रभावित आदिकाल को संधि काल का नाम दिया है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे देश भाषा का नाम दिया.
पुरानी हिंदी की लेखन परंपरा सातवीं शताब्दी से शुरू हुई .
इस परंपरा के प्रथम कवि है पुष्य. पुष्य ने सातवीं शताब्दी महापुराण' की रचना की.
हिंदी के इतिहास को तीन भागों में विभक्त किया जाता रहा है.
आदिकाल - 700 ई. से 1300 ई.
मध्यकाल- 1300 ई. से सन्1850 तक
आधुनिक काल - 1850 ई. से आज तक
यह तो रही इतिहास की बात, परंतु जिस हिंदी की हम आज बात करने जा रहे हैं, जिस हिंदी के हम ऋणी हैं, 14 सितंबर को जिस हिंदी के प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापित करने जा रहे हैं, वह हिंदी हमारे स्वतंत्रता संग्राम की भाषा रही है. स्वतंत्रता आंदोलन को पूरे देश में पहुंचाने में हिंदी का योगदान अपरिमित रहा है.
19वीं सदी में ब्रह्म समाज के संस्थापक राजाराम मोहन राय ने कहा था; "समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है".
1917 में बाल गंगाधर तिलक ने कहा; "सिर्फ हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है."
29 मार्च 1918 को आठवें हिंदी साहित्य सम्मेलन, इंदौर में महात्मा गांधी ने हिंदी को भारत के जनमानस की भाषा कहा था.
यह बातें मैं आपको यहां इसलिए याद दिला रहा हूँ ताकि हम समझ सकें कि हमारे राष्ट्र निर्माताओं के ह्रदय में और दिमाग में हिंदी के प्रति कितना प्रेम और आदर था और वह हिंदी की अगाध क्षमताओं से कितना परिचित थे.
1925 में कांग्रेस के कानपुर राष्ट्रीय अधिवेशन में गांधी जी की प्रेरणा से प्रस्ताव पारित हुआ कि कांग्रेस की महासमिति और कार्यकारिणी समिति का काम आमतौर पर हिंदी में ही चलाया जाएगा.
बड़े दु:ख की बात है कि आज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने खुद को हिंदी से बहुत दूर कर लिया है. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी से लेकर प्रदेश कांग्रेस कमेटीयों तक का अंग्रेजीकरण हो चुका है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं में आज हिंदी और स्थानीय प्रादेशिक भाषाएं दूसरे दर्जे की भाषा मानी जातीहैं और हर तरफ उस अंग्रेजी का वर्चस्व है जिस से लड़ाई लड़कर हमारे पुरखों ने देश को स्वतंत्रता दिलाई.
महात्मा गांधी जानते थे कि सिर्फ हिंदी से ही पूरे देश को जोड़ा जा सकता है और स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी जा सकती है.
स्वतंत्रता के बाद हिंदी फिल्मों ने और बाद के दशकों में हिंदी टेलीविजन ने हिंदी भाषा को देश के कोने-कोने तक पहुंचाया.
आज हिंदी बाजार की भाषा बन गई है, और जो भाषा बाजार की भाषा बन जाए वह अपने आप जन जन की भाषा बन जाती है.
हिंदी हमारे देश की धमनियों में खून बनकर दौड़ रही है और राष्ट्रप्रेम का ऑक्सीजन देश के कोने-कोने तक ले जा रही है.
स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता आंदोलन के बाद पिछले 7 दशकों में देश को जोड़े रखने में और देश के निर्माण में हिंदी भाषा के योगदान कि जितनी चर्चा की जाए वह कम होगी.
हमारा राष्ट्र हिंदी का ऋणी है परंतु हमारे शासकों ने हिंदी को और अधिक सक्षम बनाने के लिए जो कदम उठाने चाहिए थे नहीं उठाए इसका दु:ख भी आज 14 सितंबर को हम जैसे हिंदी प्रेमियों के मन में है. सिर्फ 1 दिन हिंदी को याद करके या एक पखवारा हिंदी पर चर्चा सत्र आयोजित करके, विभिन्न सरकारी विभागों के राजभाषा विभाग में कुछ कार्यक्रम आयोजित करके हम हिंदी के ऋण को उतार नहीं पाएंगे और ना तो हिंदी को विकसित होने के लिए जिन संसाधनों और वातावरण की जरूरत है वह उपलब्ध करा पाएंगे.
आज जरूरत है हिंदी के निरंतर विकास की ताकि हिंदी विश्व की प्रमुख भाषाओं की बराबरी में अपना सम्मानित स्थान प्राप्त कर सके.
आज हिंदी में साहित्य कितना लिखा जा रहा है और कैसा लिखा जा रहा है उस पर चर्चा न करके अगर मैं यह कहूं कि हिंदी के सुधी पाठक हिंदी साहित्य बहुत कम पढ़ रहे हैं तो ज्यादा उचित होगा. विभिन्न आंचलिक भाषाओं की तुलना में हिंदी का पाठक हिंदी को उतना प्रेम नहीं दे पा रहा है जितना हिंदी के संवर्धन और विकास के लिए जरूरी है. पिछले दो - तीन दशकों से हिंदी की गंगा सूखती नजर आ रही है.
हिंदी लेखकों, साहित्यकारों और विद्वानों पर जिम्मेदारी है कि वह हिंदी को और अधिक व्यवहारिक और वैज्ञानिक भाषा के रूप में विकसित करें . हिंदी हमारे राष्ट्र की अस्मिता की प्रतीक है. हिंदी विदेशों में भारत की पहचान है. हिंदी के विद्वानों , लेखकों, सुधी पाठकों के लिए 14 सितंबर "हिंदी दिवस" एक राष्ट्रीय पर्व है. आईए इस पर्व पर हिंदी उत्तरोत्तर विकास और प्रगति की कामना करें..
नमन

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