Sunday, 11 December 2016

प्रेस्टीटयूट

बड़ा मुश्किल है सच कहना, बड़ा मुश्किल है सच सुनना
मगर बेहद जरूरी है , सच से रू-बरू रहना । नमन

भारतीय पत्रकारिता का इतिहास जनजागरण का इतिहास रहा है. स्वतंत्रता आन्दोलन में उनका त्याग और बलिदान  एवं उसके बाद स्वतंत्र भारत के नवनिर्माण और उसके राजनैतिक एवं आर्थिक विकास में पत्रकारिता का योगदान भुलाया नहीं जा सकता.
राजनीती के महासुर्यों को भ्रष्टाचार और अनैतिकता का ग्रहण लगने से हुए राजनैतिक मूल्यों के ह्वास के साथ- साथ यह आईना भी स्वार्थ, सत्ता और संपदा की चिकनाई से धुंधला पड़ता चला गया. पत्रकारिता मिशन से चल कर कमीशन के मोड़ पर कब आ खड़ी हुयी, हमें पता तक न चला.
प्रणम्य पत्रकार अचानक ‘प्रेस्टीटयूट’ हो गया. जिन ताकतों के यहाँ पत्रकार ने अपनी कलम गिरवी रखी वे ही आज उसे विभिन्न संबोधनों से महिमामंडित कर रहे हैं. जो बिकाऊ है, खरीदा जा सकता है और जो खरीदा जा सकता है वह आदर का पात्र कभी नहीं होगा.
खबरे बेचीं और खरीदी जा रही हैं, बोलियाँ लग रही हैं, नीलामी जारी है, देश बिक रहा है.....
सत्ताधीश पत्रकार को पैर की जूती समझता है, क्योंकि अखबार और चैनल का मालिक पहले ही खरीदा जा चुका है. आज अधिकतर अखबार सत्य से परे सत्ताधीशो के विज्ञापनपत्र बन कर रह गए हैं. टीवी चैनलों की हालत उससे भी बुरी है. टीवी एंकर कुछ ही साल में सैकड़ों करोड़ का मालिक यूँ ही नहीं बन जाता. ऐसे में हम सत्य और असत्य का विवेक किसके कैसे कर पाएंगे?
यह राहू काल है. सत्य बोलने वाला देशद्रोही घोषित कर दिया गया है. नंगे राजा को ‘भांट’ दिव्य वस्त्रों से सुशोभित बता रहा है, लोकतंत्र मृतप्राय है और चारण मंगल गीत गा रहे हैं.
दूर आसमान से अँधेरा धीरे धीरे उतर रहा है. हम बढ़ रहे हैं ‘प्रकाश से अंधकार की ओर’ ...  सूर्यपुत्र तैयार है उलूक बनने के लिए, सवार है उसपर लक्ष्मी का भूत ......

‘नमन’

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