Monday 22 August 2016

ओलंपिक और दही हंडी

    
                                        आज कल सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर रिओ ओलंपिक की बहार है. भारतीय दल, जिसमे खिलाडी कम और फेडरेसन के पदाधिकारी जादा हैं हमेशा की तरह औसत से ख़राब दर्जे का प्रदर्शन कर रहे हैं. सरकार के खेल मंत्री अपने विशिष्ट कार्यकलापों से भारत की नाक कटवा कर वापस आ चुके हैं. कुछ खिलाडियों विशेषकर बेटियों ने बेहतरीन प्रदर्शन करके भारत की लाज बचाने का गुरुतर भार अपने कन्धों पर संभाला हुआ है. 
औद्योगिक घरानों को एक-एक बार में लाखों करोड़ की छूट और हजारों हजारों करोड़ की ज़मीन देने वाली हमारी सरकार का सालाना खेल बजट २००० करोड़ से भी कम है. इससे जादा तो मेरे तहसील स्तर के शहर का सालाना बजट है.
जो एथलीट या खिलाडी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं उनमे उनकी फेडरेशन या सरकार का किंचित भी योगदान नहीं है. राष्ट्रिय खेल हाकी की टीम बिना साजो सामान के रिओ पहुंची. केंद्रीय खेल मंत्री सेल्फी खींचने में व्यस्त थे. राज्यों में भी खेल मंत्री होते हैं की नहीं, मुझे पता नहीं.
बैडमिन्टन में मात्र एक पूर्व खिलाडी गोपीचंद की मेहनत सायना नेहवाल, श्रीकांत और सिन्धु जैसे स्टार पैदा कर सकती है तो बाकी खेलों में क्यों नहीं. कुश्ती में राजनीति न होती तो साक्षी मालिक के अलावा और भी पदक भारत को मिल सकते थे. जिम्नास्टिक में हमारी बेटी को एक फिजियो तक सरकार ने नहीं दिया. अगर खेल मंत्री मौज करने न रिओ न गए होते तो उस खर्च पर अकेले दीपा करमरकर को ही नहीं कितने ही खिलाडियों को सपोर्ट स्टाफ मिल सकता था और कितने ही खिलाड़ी देश का नाम रोशन कर पाते.
कुश्ती में कितनी राजनीति हुयी यह सब हमने देखा. उसके बाद भी अगर साक्षी मलिक कांस्य पदक जीती तो उसकी कीमत कई स्वर्ण पदकों से जादा है. बिना जरूरी सपोर्ट स्टाफ, फिजियो और आर्थिक संसाधनों के यह चमत्कार सिर्फ हमारी बेटियां ही कर सकती हैं.
हमारे शहरों में न हाकी के लिए एश्त्रोटर्फ है, न बैडमिंटन के लिए कायदे के इंडोर कोर्ट, न फूटबाल मैदान है, न टेनिस कोर्ट. न ओलम्पिक साइज़ स्विमिंग पूल हैं, न फायरिंग रेंज. न रनिंग ट्रैक हैं, न तो कोच और न खिलाडियों के लिए कोई बजट.
आपके शहर में उपरोक्त में से शायद कोई सुविधा हो भी पर मेरे शहर में जिसकी आबादी लगभग १७ लाख है सुविधाओं का सर्वथा अभाव है.
हम हर साल गणपति उत्सव, दुर्गा उत्सव, दही हंडी और कृष्ण जन्माष्टमी, शिवाजी जयंती, शिर्डी धाम पदयात्रा, कांवरिया, परिक्रमा आदि के नाम पर धार्मिक उन्माद पैदा करने के लिए हजारों करोड़ों रु खर्च करते हैं.
अकेले कुंभ आयोजनों पर सरकार प्रतिवर्ष हजारों करोड़ खर्च करती है, पर खेलों पर चवन्नी खर्च करने को तैयार नहीं हैं.
जो युवा वर्ग गणपति मंडलों, दुर्गा मंडलों में बैठ कर जुआ खेलता है, विसर्जन के समय शराब पीकर नाचता है, दही हंडी के लिए तैयारी करता है हम उस उर्जा और आर्थिक संसाधनों हर शहर में सालाना खेल महोत्सव आयोजित करके अगर उसमे लगा दें तो एक बेहतर और स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकेंगे.
‘नमन’

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