Thursday 18 August 2016

मेरा गांव-घर


ये जड़ें हैं हमारी
यहीं से फुनगी बन कर उगे हम
यहीं के खेत खलिहानों में पले 
यहीं की अमराई में दोपहर गुजरी
यहीं खटिया पर शाम
तारे गिनते हुए
यहीं कभी पुरवाई ने हमें सहलाया
तो कभी पंछुवां ने झुलस दिया तन
सावन की बूंदों से तृप्त मन
झूमता था कभी
धान की बाली के साथ
इन्ही वादियों में
मकई की घूही जैसे सुन्दर फूल कहाँ होते हैं अब
मेढकीयों के टर्र टर्र का अषाढइ संगीत
पानी से भरी ताल-तलैया
चारो तरफ हरियाली ही हरियाली
ह्रदय में उतरती कज़री
पटोहे की तान
दुवारे की झूमती नीम
पछवारे की सरसराती बांस की कोठ
पूष आते-आते आ जाता था
भुने आलुओं का मौसम
हरी मटर की सलोनी
उख का रस
निमोना भात
कडाह का ताज़ा गुड
चिनगा और पिटूरा
होरहा और होली
फगुआ और भंग
आज भी वहीँ हैं
नहीं हैं तो हम
जो रोटी की तलाश में भूल गए हैं
वापसी के रास्ते
कट गए हैं जड़ों से
बिखर गए हैं तिनकों की तरह....
 'नमन'

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