Wednesday 3 August 2016

आरक्षण और उसकी आवश्यकता

                आरक्षण और उसकी आवश्यकता

मैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, भारतीय संविधान के शिल्पी डॉ आंबेडकर, प्रजातंत्र के पुरोधा पंडित नेहरु, स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री डॉ अबुल कलाम आज़ाद और संविधान सभा के सभी प्रणम्य सदस्यों की सोच, उनके विचारों और उनकी महानता को प्रणाम करते हुए और उनके कार्यों पर किंचित भी प्रश्न चिन्ह न लगाते हुए पूरी विनम्रता से आज की परिस्थितियों में ‘आरक्षण’ के अन्य विकल्पों की तलाश की कोशिश करना चाहूँगा.
मेरा अपना मानना है की १९४० के दशक के अंतिम वर्षों में जब हमारे संविधान निर्माता भारत के सुन्दर भविष्य के सपने देख रहे थे, संविधान के निर्माण में उनका कहीं किंचित भी कोई स्वार्थ नहीं था. न तो कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा ही हमारे संविधान निर्माताओं के ह्रदय में कहीं थी. संविधान सभा के सभी सदस्य विद्वान होने के साथ-साथ सहृदय और देश के प्रति पूर्ण समर्पित भी थे.
यह हमारा दुर्भाग्य है की संविधान सभा के बाद उतने विद्वान, राष्ट्र के प्रति समर्पित और निःस्वार्थ संसद सदस्य भारतीय संसद के लिए फिर कभी नहीं चुने जा सके. बदलती परिस्थितियों के साथ संसद सदस्यों के बौद्धिक स्तर, राजनैतिक समझ, तर्क करने की क्षमता, ईमानदारी और विवेक में संसद दर संसद लगातार गिरावट आई है.
जिन परिस्थियों में समाज के पिछड़े वर्गों को ‘आरक्षण’ देने की बात संविधान सभा ने की थी, उन परिस्थितियों में उनका वह निर्णय शत प्रतिशत सही था. पर स्वतंत्रता के ६८ सालों बाद आज हम इतिहास के उस मोड़ पर खड़े हैं जहाँ हमें अपने संविधान निर्माताओं की सोच के आगे बढ़ कर आरक्षण के अन्य विकल्प तलाशने होंगे.
भारतीय संस्कृति ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की बात करती है, हम सबके सुख और मंगल की कामना करते हैं. ऐसे में सरकारों और जनप्रतिनिधियों का सरोकार किसी जाती, धर्म, भाषा विशेष के लोगों का मंगल करने का न तो होता है और न होना चाहिए. ‘हम एक हैं और हम नेक हैं’ की भावना हर देश वासी में होनी चाहिए और है.
हमारे अधिकांश कमजोर, रीढविहीन और विचारहीन राजनेता जातीय, भाषाई और धार्मिक विवाद पैदा करके चुनावों के समय पूरे समाज को बाँट कर अपना उल्लू सीधा करते हैं. इन परिस्थितियों में अगर समाज के कमज़ोर और पिछड़े वर्ग को ‘आरक्षण’ के माध्यम से मिल रही सहूलियतों को बिना प्रभावित किये जातिगत आरक्षण को ख़त्म कर दिया जाये तो हम इन अक्षम राजनेताओं के चंगुल से देश को बचाने में समर्थ हो सकेंगे. देश के अंतिम आदमी तक देश के आर्थिक संसाधनों की पहुँच हो, देश के विकास में उसकी साझेदारी सुनिश्चित हो, यह निश्चित करना जनप्रतिनिधियों का नैतिक दायित्व और सभी सरकारों का कर्तव्य है.
हमें दूर अतीत में झांकने की जरुरत है की हमारे सविधान निर्माताओं ने आरक्षण को आवश्यक क्यों समझा? १९४० के दशक में अगड़ों और पिछड़ों में क्या और कितना अंतर था? यह अंतर कम करने के क्या उपाय उनके पास मौजूद थे? तब और आज की परिस्थितियों में क्या अंतर है? आरक्षण से किसे कितना लाभ और अवसर मिला? कौन सा तबका आज भी दलित, पीड़ित और उपेक्षित है? आरक्षण से देश को क्या लाभ या हानि हुयी? इन सब सवालों के जवाब जाने बिना इस विषय पर आगे की चर्चा व्यर्थ होगी.
आज जब देश की अधिकांश आबादी खुद को पिछड़ा स्थापित करने में लगी है, उपरोक्त प्रश्न और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए शासकों ने दर्ज़नों अन्य जातियों को आरक्षण का लाभ अब तक दिया है. फिर भी आज महाराष्ट्र में ‘मराठा’, हिंदी प्रदेशों में ‘जाट’ व ‘गूजर’, गुजरात में ‘पटेल’, पूरे देश में मुसलमान एवं अन्य आरक्षण में अपनी हिस्सेदारी मांग रहे हैं. आन्दोलन और धरनों से देश को लाखों करोड़ का नुकसान हो चुका है. आरक्षण के समर्थन और विरोध में हजारों नौजवान अपनी जान गँवा चुके हैं पर किसी राजनैतिक दल ने इन पर चर्चा करने के लिए कोई प्रकोष्ट तक नहीं बनाया या बनाया हो तो आम आदमी को उसका पता नहीं है.
ऐसे में क्या यह सोचने का समय नहीं आ गया है की हम आरक्षण के विकल्पों की तलाश करें. बिना किसी व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के खुले दिमाग से सभी प्रभावित घटकों को समाहित करते हुए विस्तृत विचार विमर्श की आवश्यकता है. वैचारिक मंथन से ही विकल्प का अमृत निकलेगा जो अगली सदी तक हमारे देश और समाज के विकास को सींच कर उसे अमर करेगा, अक्षुण्ण रखेगा हमारी सभ्यता को.
१९४० के दशक की आर्थिक परिस्थियाँ, देश के भौतिक और आर्थिक संसाधनों में समाज के विभिन्न घटकों की हिस्सेदारी, अगड़ों और पिछडो के बीच का अंतर, शैक्षणिक विषमता आदि को ध्यान में रख कर संविधान निर्माताओं ने पिछड़ों के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की ताकि अगड़े और पिछड़ों को विकास के समान धरातल पर लाया जा सके. आज कुछ राजनैतिक दल और उनके नेता इन आरक्षणों का उपयोग अपने निजी स्वार्थ के लिए कर रहे हैं. पिछड़ी जातियों के उत्थान में उनकी कोई रूचि नहीं है. साथ ही पिछड़ों में भी एक सर्व शक्तिमान- सर्व संपन्न, उच्च पदस्थ लोगो का वर्ग तैयार हो गया है जो खुद पिछड़े वर्गों का शोषण कर रहा है.
इन स्वार्थी राजनेताओं और सर्व शक्तिमान- सर्व संपन्न, उच्च पदस्थ पिछड़ों से जरूरतमंद पिछड़ों की रक्षा की जरुरत है. इस विषय में मेरे कुछ सुझाव हैं....
१-      सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत शत प्रतिशत विद्यार्थियों को चाहे वे किसी भी जाती, धर्म के हों और गरीब हों जिनके माता पिता की संयुक्त आय ६५,००० रु महीने से कम हो १२ वीं तक मुफ्त शिक्षा दी जाये. उन्हें ४ जोड़ी कपडे ( २ जोड़ी खादी की स्कूल ड्रेस और २ जोड़ी घर पहनने के कपडे), २ जोड़ी जूते, १ जोड़ी चप्पल, सारी किताब- कापियां, और यदि विद्यालय दूर हो तो आने जाने का भत्ता दिया जाये.
२-      जिन परिवारों के बच्चे खुद गैर सरकारी स्कूलों में पढ़ना चाहेंगे उन्हें यह सुविधा नहीं मिलेगी.
३-      अगर हम सभी जाती, धर्म के विद्यार्थी का १२ वी तक का खर्च उठाएंगे तो फिर इंजीनियरिंग, मेडिकल और अन्य जगहों पर प्रवेश में रिज़र्वेसन देने की जरुरत नहीं होगी. क्यों की सारे विद्यार्थी एक जैसी सुविधाओं का लाभ पाकर १२ वी पास हुए हैं.
४-      जो विद्यार्थी गैर सरकारी विद्यालयों से पास होगे उन्हें सरकारी इंजीनियरिंग, मेडिकल या किसी अन्य व्यावसायिक शिक्षा के कालेज में प्रवेश नहीं मिलेगा. सरकारी उच्च शिक्षा केंद्र सिर्फ सरकारी विद्यालयों से पास बच्चों को मेरिट के हिसाब से प्रवेश देंगे. इससे आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के विद्यार्थियों को कम से कम खर्च में उच्च शिक्षा मिल सकेगी. सरकारी वजीफे आर्थिक रूप से कमज़ोर सभी विद्यार्थियों को मेरिट के हिसाब से दिए जायेंगे.
५-      सरकारी विद्यालयों से पास बच्चे निजी इंजीनियरिंग, मेडिकल या अन्य तांत्रिक और व्यावसायिक संस्थानों में भी मेरिट के हिसाब से प्रवेश ले सकेंगे.
६-      सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के उन बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा जिनके माँ- पिता में से कोई भी एक द्वितीय या प्रथम श्रेणी का सरकारी कर्मचारी हो, या जिसकी वार्षिक आय ७.५ लाख रु सालाना से जादा हो या जिनके २ से अधिक बच्चे हों .
७-      कुछ प्रतिशत आरक्षण उन जातियों के लोगों के लिए उपलब्ध कराया जाए जो आरक्षण सूची में नहीं हैं और जिनके माँ पिता की सालाना आय ६ लाख रु से जादा नहीं है और जिनके २ से अधिक भाई बहन नहीं हैं.
८-      नौकरियों में जातिगत प्रमोशन का आरक्षण तुरंत रद्द किया जाये.
९-      स्कूलों, सरकारी कार्यालयों और अन्य संस्थानों के पहचान पत्रों, बैंक खतों आदि में नाम के आगे जाती और धर्म लिखना और लगाना तुरंत से बंद किया जाये. प्रमाण पत्रों में विद्यार्थी के नाम के साथ सिर्फ उसके माँ और पिता का नाम हो. जाती प्रमाण पत्र अलग से सभी को जारी किया जाये.
१०-   २०३५ के बाद पूरे आरक्षण की समीक्षा करके पुनः इसमें सुधार किया जाये.
क्रमश:

‘नमन’

2 comments:

  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति जन्मदिन : मैथिलीशरण गुप्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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