कलियुगे कलि प्रथम चरणे
कितने ही सालों से
पसरी है ख़ामोशी
कोई नहीं चीखा है
दर्शक दीर्घा से....
कौवे और गिद्ध
लड़ रहे हैं
अपने अपने हिस्से की
हड्डी के लिए
कर रहे हैं इंतज़ार
अपनी बारी का
मरणासन्न वह
कभी कभी झटक देता है
अपने हाथ पैर
और कौवे उड़ कर
दूर जा बैठते हैं
इन्तजार में
इन्होने नोच लिया है
जगह जगह से
उसका मांस
रिस रहा है लहू
सड़ रहे हैं घाव
फिर भी
कराहता सिसकता
वह ज़िंदा है
कितने ही सालों पहले
तोडा था
दर्शक दीर्घा के
इस सन्नाटे को
एक दीवाने ने
धुंवे का बम फेंक कर
तब से अब तक
एक चीख नहीं
एक आवाज़ नहीं
सन्नाटा पसरा है
चारों ओर
शोर है तो सिर्फ
अपने हिस्से की
हड्डी के लिए लड़ रहे
कौवों की काँव काँव का
कौवों की काँव काँव का.......
'नमन '
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