Tuesday 15 September 2015

आसमान के चिराग धरती पर लाने होंगे

आसमान के चिराग धरती पर लाने होंगे
हमको गलियों के अँधेरे भी मिटाने होंगे।  
                'दि वीक' अंग्रेजी पत्रिका से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार भाई निरंजन टकले और उनके मित्रों ने इस वर्ष सूखे की मार झेल रहे और आत्महत्या कर रहे किसानो के परिवारों की सहायता करने का बीड़ा उठाया है।   उन्होंने तय किया है की वे गणेश उत्सव पर पैसे खर्च न करके उस पैसे जरुरतमंद किसान परिवारों की सहायता करेंगे।   
भाई निरंजन जी और उनके मित्रों के इस कदम का स्वागत होना चाहिए।  वे और उनके मित्र बहुत सारे किसानो को गरीबी और क़र्ज़ से मुक्ति शायद न दिला पायें पर जो शुरुआत उन्होंने की है वह अन्य लोगों को सन्देश देगी की वे भी इस आन्दोलन में भाग लेकर देश के अन्नदाता के लिए कुछ करे।   मैंने कभी लिखा था-
' भले इस एक दीपक से अँधेरा कम नहीं होगा 
मगर ये दीप तम का कभी भी हम-दम नहीं होगा.'
                                   भाई निरंजन जी और उनके सहयोगियों को बहुत बहुत साधुवाद।   

१९४७ से अब तक हर वर्ष वार्षिक बजट तैयार करते समय केंद्र सरकार विभिन्न व्यापारी संगठनो के प्रतिनिधियों और उद्योगपतियों के सगठनों से विचार विमर्श करके बज़ट बनाती है।  परन्तु आज तक कभी किसी सरकार ने बज़ट बनाते समय  किसानों के प्रतिनिधियों से बात करने तक की जहमत नहीं उठाई।  
स्वतंत्रता से अब तक विभिन्न सरकारों ने हमारे देश के किसानों के लिए सिंचाई, खाद, बिज़ली आदि का इंतजाम करने की कोशिश की पर उनकी उपज का उपयुक्त दाम देने में सभी सरकारें असमर्थ रही हैं।   देश की  लगभग ३०% शहरी आबादी और नौकरी पेशा तथाकथित मध्यमवर्ग के हितों को ध्यान में रख कर हर सरकार आज तक किसानो का शोषण करती आ रही हैं।   किसान को अपनी उपज का भाव निर्धारित करने की भी छूट सरकार नहीं देती।   देश का किसान अपनी उपज का भण्डारण करके उसे अपनी कीमत पर नहीं बेच सकता।   सरकार को अधिकार है की उस पर ज़माखोरी का आरोप लगा कर उसका अनाज ज़ब्त कर ले।   पूरी व्यवस्था किसानो के खिलाफ और पूँजी पतियों के पक्ष में है।   इस ढंग की व्यवस्था बना दी गयी है की किसान अपनी लागत से कम कीमत पर अपनी उपज बेचने के लिए बाध्य है।   
इस तरह का ढांचा तैयार किया गया है की किसान खेती करके अपने परिवार का पालन पोषण करने में समर्थ न हो और शहरों की तरफ पलायन करे।  ताकि व्यापारियों और कारखानेदारों के यहाँ अकुशल सस्ते मजदूरों की आपूर्ति लगातार होती रहे।  अगर किसानों को अपने परिवार के पालन पोषण भर की आय हो तो वह भूल कर भी शहर का रुख नहीं करेगा। ऐसे में कारखानेदारों को सस्ता मजदूर न मिलने से उनके उत्पादों की उत्पादन कीमत बढ़ जाएगी।  
 सरकारें न केवल किसानों के गाँव से शहर की तरफ पलायन के लिए ज़िम्मेदार हैं, बल्कि शहरों में बन रही झुग्गी झोपड़ियों के लिए भी सरकारी नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं. शहरों की बढती जनसँख्या और शहरी ढाँचे (Infrastructure) पर लगातार बढ़ता बोझ चिंता का विषय है. उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर सरकारें शहरों के विकास पर हर साल लाखों करोड़ खर्च कर रही हैं।  लोगों को रोजगार देने के नाम पर पूरे देश के प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों का दोहन करने वाले उद्योग सरकारी दामाद बने बैठे हैं।  
कभी सूखा , कभी बाढ़ से हो रहे नुकसान और अपनी फसल की उचित कीमत न मिलने से परेशान होकर आत्महत्या कर रहे किसान , उद्योग बंद होने से बेकार हो रहे मजदूर देश की जनसँख्या के ८५% का प्रतिनधित्व करते हैं।  
राजनेता इन्हें धर्म, जाती, भाषा, प्रान्त और संप्रदाय के नाम पर बाँट कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं. इसे कहीं न कहीं रोकना होगा और यह ज़िम्मेदारी प्रबुद्ध वर्ग को जाती है।  पत्रकार और साहित्यकार इसी प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।  मैं खुश हूँ की एक अच्छी शुरुवात समाज के इसी तबके ने की है।  हम अगर गणेश उत्सव, नवरात्री उत्सव, शिव जयंती, दही हंडी जैसे उत्सवों पर होने वाले खर्च को रोक कर उसे किसानो की सहायता के लिए, जरुरत मंदों के लिए अस्पताल बनाने, गरीब बच्चों की शिक्षा आदि के लिए खर्च करें तो देश की एक बहुत बड़ी आबादी के आंसू पोंछ सकते हैं।  

'नमन' 



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