Friday 24 April 2015

किसानो की हत्या या आत्महत्या

                               किसानो की हत्या या आत्महत्या 
हमारे यहाँ मृत्यु के बाद खर्च की पुरानी परंपरा रही है. आदमी भूख से मर रहा है तो उसे कोई रोटी देने नहीं आता, परन्तु उसके मरने के बाद हम उसके बच्चों को क़र्ज़ देकर उनसे सैकड़ों लोगों को तेरहवीं का खाना खिलाने की जिद करेंगे.. 
बीमारी से मर रहा है इलाज़ के लिए कोई पैसे नहीं देता, पर उसके मरने के बाद क़र्ज़ लेकर श्राद्ध अच्छे से करेंगे. आखिर इज्ज़त का सवाल है. जाड़े से मर रहा तो कपडे नहीं देंगे, पर मरने पर कफ़न दफ़न ठीक से करेंगे. 
हमारी सरकारें भी मरने के बाद ही जागती हैं. जिंदा किसान को ५० रु -१०० रु के चेक देती हैं और मरने के बाद लाखों का धनादेश उसके परिवार को. सरकारे लाशों का व्यापार कर रही हैं. किसान ने दिल्ली में आकर आत्महत्या की तो उसके परिवार को शायद १० से २० लाख मिल जाएँ. दूर किसी गाँव में किसान ने आत्महत्या की तो लाख -दो लाख मिलेंगे.
 अगर जिला कलक्टर साहब ज्यादा चालाक निकले तो उसे भूख और गरीबी से हुयी आत्म हत्या न बताकर पागलपन में हुयी आत्महत्या बता देंगे. वरना उनका रिकार्ड ख़राब होने का डर है. अगर आत्महत्या करने वाले व्यक्ति का लड़का या भाई जादा चूं-चपड़ कर रहा हो और अधिकारी चालाक हो तो मृतक के वारिसों को ही हत्या के आरोप में हवालात भेज देगा, और उसके परिवार को सरकारी सहायता देने की जगह उनसे ही वसूली की जाएगी. पत्रकार आत्महत्या कर रहे व्यक्ति को बचायेंगे नहीं, उनकी फोटो खींचेगे और फिर आत्महत्याओं के लिए सरकार को दोषी ठहराएंगे. वर्तमान सरकार पुरानी सरकार को दोषी ठहरायेगी. राज्य सरकार केंद्र को और केंद्र सरकार राज्य सरकार को दोषी ठहराएंगे. अतिवृष्टि, ओले पड़ने , तूफ़ान आने और यहाँ तक की भूकंप आने के लिए भी पुरानी सरकार को दोष देने की अक्षत परंपरा हमारे देश में रही है और हम परम्पराओं को तोड़ने का पाप हरगिज़ नहीं करते। 
६७% किसान और २०% मजदूर इस देश की सबसे उपेक्षित जनसँख्या रही है. सरकारे बजट बनाते समय अर्थशास्त्रियों , उद्योजकों , निवेशको , यहाँ तक की NGO तक की सलाह लेते हैं पर किसान और मजदूर से कोई नहीं पूंछता की भाई बता तेरी रजा क्या है? ये बेचारे किस खेत की मूली हैं! 
अगर व्यापारी, इंजिनियर, डॉ, अधिकारी.……  लोन लेकर कार खरीदते हैं और उसके लोन का हफ्ता  नहीं भर पाते तो बैंक उनकी कार उठा ले जाती है, उनका फ़्लैट, बंगला या उनकी जायदाद पर कब्ज़ा नहीं करती, परन्तु अगर कोई किसान अपने ट्रैक्टर या पम्पिंग सेट के क़र्ज़ का हफ्ता न भर पाए तो बैंक न केवल उसका ट्रैक्टर और पम्पिंग सेट ज़ब्त करता है बल्कि उसकी ज़मीन जो किसान की माँ है को भी कुर्क कर लेता है. ऐसे दबाव में हमारा किसान आत्महत्या नहीं करेगा तो क्या गीत गायेगा? उस पर तुर्रा यह की ट्रैक्टर वाला किसान गरीब नहीं है. इतने एकड़ ज़मीन वाला किसान गरीब नहीं है. किसान न अपनी ज़मीन का मालिक बन पा रहा है न अपने उत्पाद का दाम स्वयं तय कर सकता है. वह सिर्फ मर सकता है, आत्महत्या कर सकता है. 
वाह रे मेरा समाज ! वाह रे हमारी संस्कृति ! वाह रे हमारी अंधी बहरी व्यवस्था ! वाह रे हमारे अंधे बहरे जनप्रतिनिधि !!!!!!
'नमन.

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