Thursday 5 June 2014

ढाई आखर प्रेम का


ढाई आखर प्रेम का
महाकवि तुलसीदास ने लिखा
स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
रच डाला पूरा रामचरितमानस
अपने सुख के लिए .......

तो हम क्यों नहीं लिख सकते
अपने सुख के लिए कविता
क्यों नहीं कह सकते
अपने आनंद के लिए गजल .....
क्यों जरूरी हो जाते हैं
मात्राएं- छंद
वाद और विमर्श .......

आप तो मुझे प्रेम करने दीजिये
अपनी कविता से – गजल से
प्रिय से – प्रकृति से
अपनों और परायों से
आत्मा से – परमात्मा से.....

मैं प्यार करूंगा
जरूर करूंगा प्यार
आप मत सिखाईए हमें
प्यार करना .....

आपके नियम और बंधन
नहीं रोक सकते हमे
न तो आपकी आलोचनाएँ रोक पाएँगी हमे
न तो आक्षेप
नहीं लेना देना मुझे
आपके वाद और विमर्शों से......

हम तो
अनपढ़ –अनगढ़ अपवाद हैं
कबीर की तरह
जो कह गए ....

‘पोथी पढ़ि- पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय’.....
‘नमन’

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