Saturday, 7 June 2014

शर्मिंदा हूँ पर ज़िंदा हूँ.


शर्मिंदा हूँ पर ज़िंदा हूँ.....

नवभारत टाइम्स मे बलात्कार विषय पर आदरणीय श्री सतीश मिश्र जी का ब्लॉग पढ़ा। उन्होने अच्छे प्रश्न उपस्थित किए हैं। बलात्कार दुनिया के सारे विकसित, विकासशील और अविकसित देशों मे होते हैं। पर भारत मे ये अधिक संख्या मे क्यों हो रहे हैं? नए कानून बनाने के बाद बलात्कार के बाद हत्या की घटनाओं मे वृद्धि क्यों हुयी है? स्त्री सिर्फ शरीर बन कर क्यों रह गयी है? प्यार के अर्थ क्यों बदल गए हैं? समाज मे बलात्कार के बाद पीड़िता स्त्री और उसका परिवार ही क्यों प्रताड़ित होता है? बलात्कारी पुरुष के परिवार को उस यातना से क्यों नहीं गुज़रना पड़ता जिससे स्त्री और उसका परिवार गुज़रते हैं?

अनेकों प्रश्न हैं पर उत्तर किसी के पास नहीं हैं। आज के नवयुवक और अधिकांश अधेड़ पुरुषों की दृष्टि मे स्त्री एक वस्तु, एक शरीर बन कर रह गई है। जिसे खरीदा और बेंचा जा सकता है, भोगा जा सकता है, उपयोग मे लाया जा सकता है। इस व्यवस्था, इस सोच की जड़ मे जाने के लिए भारतीय इतिहास मे झांकना पड़ेगा।

भारतीय इतिहास मे ऐसे हजारों उदाहरण हैं जहां स्त्री को बाहुबल से जीत कर उससे शादी की गई है। यानि स्त्री की इच्छा का कोई महत्व नहीं हैं है। उसे स्वतन्त्रता नहीं है की वह किसका वरण करे, किसे चुने? वह वस्तु मात्र है की उसे जो जीतेगा उसीसे उसकी शादी करनी होगी।

इतिहास मे ऐसे हजारों नपुंसक राजा भी मिलेंगे जिन्होने अपने राज्य की रक्षा के लिए धन के साथ-साथ अपनी बेटियाँ अपनी बहने हमलावर राजाओं को भेंट कर दी। राजकुमारियों की शादी के समय उनके साथ उनकी सहेलियाँ और सेविकाए भी दहेज मे देने की परंपरा रही है।

महाभारत मे द्रोपदी का उदाहरण ले। अर्जुन द्रोपदी को स्वयंबर मे जीतते हैं और उनकी माँ कुंती यह कहती हैं की तुम पांचों भाई उसे बाँट लो। यहाँ राजकुमारी द्रोपदी एक वस्तु बन कर रह जाती हैं। और तो और जुआरी, नपुंसक, अधर्मी और कायर युधिष्ठिर द्रोपदी को जुए मे दांव पर लगा देते हैं, फिर भी धर्मराज कहे जाते हैं। महाभारत के युद्ध मे द्रोणाचार्य को युद्ध से विरत करने के लिए “ अश्वत्थामा मरो नरो वा कुंजरों?” कह कर सिर्फ एक झूठ बोलने के लिए स-शरीर स्वर्ग जाते समय युधिष्ठिर की कानी अंगुली गल जाती है। परंतु पांचाली को जुए मे हारने के लिए, भरी सभा मे उसे निर्वस्त्र होते देखने के लिए, भरी सभा मे जबरदस्ती उसे एक पर पुरुष की जंघा पर बैठाये जाने का विरोध न करने के लिए ईश्वर उन्हे कोई सज़ा नहीं देता।

जिस देश मे माँयें और दादियाँ “ चार बहू भैया के आवें, दुई गोरी –दुई काली….” जैसी लोरियाँ गा कर बड़ा करती आई हैं। वहाँ के पुरुष प्रधान समाज मे स्त्रियाँ आदर कैसे पाएँगी? अगर पुरुष प्रधान समाज की दृष्टि मे स्त्री सिर्फ एक शरीर है, एक वस्तु है तो फिर उसके हृदय , उसकी भावनाओं को समझने की कोई कोशिश क्यों होगी ?

राजधानी दिल्ली मे हुये निर्भया बलात्कार कांड के बाद जो राजनैतिक बवंडर उठाया गया उसके केंद्र मे भारतीय स्त्री, उसकी सुरक्षा, उसका सामाजिक स्थान कहीं नहीं था। यह राजनैतिक बवंडर सिर्फ एक पार्टी को सत्ता से हटाने की साजिश की शुरुवात थी। अगर यह आंदोलन नारी अस्मिता, नारी सुरक्षा के लिए होता तो पूरे देश मे सबसे जादा बलात्कार होने वाले राज्य मध्यप्रदेश मे जिसमे सिर्फ पिछले एक साल मे लगभग 3450 बलात्कार के अपराध दर्ज़ हुये हैं एक भी आंदोलन क्यों नहीं होता? मोमबत्तियाँ खत्म हो गयी हैं, या मध्यप्रदेश मे पढ़ी लिखी महिलाएं नहीं हैं। मीडिया क्यों अंधा बहरा बना हुआ है? उत्तरप्रदेश की निर्भया के लिए दिल्ली मे 3 महीने आंदोलन हो सकते हैं तो मध्यप्रदेश की 3450 निर्भयाओं के लिए क्या दिल्ली की पढ़ी लिखी, सजी धजी महिलाएं 3 दिन भी आंदोलन नहीं कर सकती?

खैर यह आंदोलन हुआ और आनन फानन मे नारी सुरक्षा के नाम पर सभी पार्टियों की सहमति से एक बिल भी पास कर दिया गया। इस बिल मे बलात्कारी को फांसी की सज़ा का प्रावधान है। यह बिल इस देश की संसद मे पारित सबसे मूर्खतापूर्ण बिल है जो मीडिया के दबाव मे पास किया गया। जब इस बिल को संसद मे रखा जा रहा था देश के बहुत से वरिष्ठ अधिवक्ताओं का कहना था की अगर बलात्कार के आरोपी को फांसी की सज़ा का प्रावधान हुआ तो बलात्कारी बलात्कार के बाद पीड़िता की हत्या कर देंगे। क्योंकि हत्या और बलात्कार दोनों की सज़ा एक ही है। दूसरे पीड़िता को ज़िंदा छोड़ने की स्थिति मे पीड़िता स्वयं गवाह होगी और आरोपी के सज़ा से बचने के मौके एक दम कम होंगे जबकि हत्या की हालत मे गवाह न होने की वजह से आरोपी के बचने के मौके जादा हो जाते हैं।

यही कारण है की नए कानून के आने के बाद से बलात्कार के बाद हत्या की घटनाओं मे वृद्धि हुयी है। मीडिया और नारी संगठनो के दबाव मे बने इस अधकचरा बिल को दुरुस्त करने की जरूरत है। उससे भी जादा जरूरत है सामाजिक सोच मे बदलाव की। समाज अपनी ज़िम्मेदारी निभाने मे असफल रहा है। 

हम स्त्री को उत्तेजक कपड़े न पहनने की सलाह देते समय पुरुष को भी यही सलाह क्यों नहीं देते? हम ऐसी उत्तेजक दृश्यों वाली फिल्मों पर रोक क्यों नहीं लगाते? हम इन्टरनेट जैसे माध्यम को क्यों कामोत्तेजक लेख और फिल्मे प्रसारित करने से नहीं रोकते? ढेरो प्रश्न है , उन पर फिर कभी लिखूंगा। 

आज सिर्फ इतना ही कहूँगा की --- 
‘शर्मिंदा हूँ की इस कायर, वहशी पुरुष समाज का हिस्सा हूँ, शर्मिंदा इसलिए भी हूँ की मैं भी सिर्फ यह लेख लिखने के अलावा अधिक कुछ करने मे अक्षम हूँ’।
‘नमन’
कल्याण

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