Wednesday 1 January 2014

खोता हुआ देश


वैचारिक दिवलियेपन से
जब भी सिकुड़ने लगता है
उनका राजनैतिक आकाश
खिसकने लगती है
उनके पैरों के नीचे की ज़मीन
धार्मिक उन्माद की आग मे 
झोंक देते हैं वे देश को
जलाते हैं
झुग्गियाँ, बस्तियाँ और शहर
ताकि उस गर्मी मे वे सेंक सकें
अपनी राजनैतिक रोटियाँ.....
खोखले वादे
अनर्गल प्रलाप
झूठ –फरेब
भय और भ्रष्टाचार की राजनीति
जातिगत उन्माद
क्षेत्रवाद – भाषावाद
इन सब मे
कहीं खो जाता है देश .....
इस कारोबार मे
सब पर हाबी है
राजनैतिक हैवानियत
यहाँ तौले जाते हैं
सारे के सारे निर्णय
सिर्फ जीत और हार की तराजू मे
इनके केंद्र मे
प्रजातन्त्र का राजा
मतदाता कहीं नहीं होता
न तो कहीं होता है देश .....
न तो कहीं होता है देश.....
‘नमन’ 

1 comment:

  1. ये तो होना ही है पूंजीवाद के इस घिनौने खेल में!
    रचना बढ़िया की है गुरु!

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