Monday, 7 November 2011

'TUMHARA APANA BAANS'







मित्रों,
 हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं, पर कभी कभी जाने अनजाने हम किसी न
किसी गरीब, बेसहारा, कमजोर, असहाय का शोषण कर लेते हैं| मेरी प्रस्तुत कविता
का बांस प्रतिनिधित्व करता है उसी दलित, पीड़ित, शोषित, असहाय तबके का जो
उपेक्षित है, अपमानित है, बेबस है|  मेरी इस कविता का बांस श्रमिक है-मजदूर है,
बेसहारा है पर मजबूर नहीं है......

हाँ! मैं उसी कोठी का बांस हूँ
जिससे छाया  गया है
तुम्हारा छप्पर
मेरे वंशजों के ही सहारे
खड़ा है वो मांचा
जिस पर बैठ कर
करते हो तुम रखवाली
अपने खेत की |
मेरी ही कोठी का बांस है 
वह लाठी 
जो वक्त बेवक्त 
सहारा देती है आपको | 
भले ही तुमने रखा है
मेरे वंशजों को
अपने घरों से दूर
घूरों में - गन्दगी में
पर वो हमारा ही कन्धा है
जिस पर रख कर गंडेर
तुम चलाते रहे हो
अपना पुरवट
सींचते रहे हो अपनी जमीन|
और सार्थक समझा हमने
खुद को
क्योंकि हमारे ही श्रम से
मिटती रही है सब की भूख
भले चिंचियाते रहे हम
पर कन्धा नहीं हटाया हमने
पर जब तुम
छीनने लगे हमारे छोटे छोटे हक़
तब तन कर खड़ा होना पड़ा हमें 
तुम्हारे सामने 
अनचाहे  ही
और सुनो तुम
हाँ कान खोल कर सुनो
हम तो जग ही लेंगे
कहीं भी - कैसे भी
पर तुम हो असहाय
हमारे बिना
और असहाय ही रहोगे
हमारे बिना......   
                              'नमन'







1 comment:

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