मित्रों,
काफी दिनों से कोई ग़ज़ल नहीं हुई थी| काफी व्यस्त रहा|
चारों तरफ फैला हुआ सियासत का जंगल कब मुझे निगल
जायेगा, इसी उधेड़बुन में खुद से दूर हो गया था|
क्यों कि हूँ तो मैं भी इंसान ही , कमजोरियों का पुतला|
खैर चलिए ग़ज़ल कि तरफ चलें....
कोई आलाप रूहानी तो निकले
तुम्हारी आँख से पानी तो निकले|
मेले में बहुत सी लड़कियां हैं
कोई इनमें से रूमानी तो निकले|
गरीबी पर हुई संसद में चर्चा
गरजते मेघ से पानी तो निकले|
हजारों प्रेम के किस्से सुने हैं
एक राधा सी दीवानी तो निकले|
सियासतदां बहुत फूले फले हैं
एकाधा भोज सा दानी तो निकले|
'नमन'
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