पिछले दिनों एक और कबीर नहीं रहा| नारायण सुर्वे... मराठी साहित्य , मराठी कविता का एक सशक्त हस्ताक्षर हमें छोड़ कर शून्य में विलीन हो गया| एक सूर्य अस्त हुआ, एक पथिक थक कर
सो गया- कहीं खो गया| नारायण... जिसका नाम लेतेही वैकुण्ठ में स्थान मिल जाता है,वह महान
आत्मा सीधे वैकुण्ठ ही गयी होगी इसमे रंच मात्र भी शंका नहीं| कबीर और नारायण सुर्वे में बहुत सी
समानताएं हैं| कबीर को अपने मां बाप का पता नहीं था , उन्हें एक जुलाहे ने पाला| नारायण सुर्वे को भी
अपने मां बाप का पता नहीं था, उन्हें भी एक बुनकर दम्पति ने ही पाला, पोसा अपना नाम दिया | कबीर
ने जीवन भर कपड़ा बुना, नारायण सुर्वे ने भी कपड़ा मिल में काम किया , सपने बुने - समाज प्रबोधन
क़ी कठिन राह चुनी | कबीर काशी में प्रकट हुए और नारायण नाम का यह सूर्य (सुर्वे) मुंबई में प्रकट हुआ|
दोनों ने समाज के उपेक्षित वर्ग क़ी पीड़ा समझी | कबीर कई कई युगों में एक पैदा होता है, नारायण सुर्वे
कबीर नहीं हो सकते पर कबीर जैसे ही रहे| अपनी सारी पीड़ा , सारी तकलीफों के बाद भी अन्याय से
लड़ने का साहस उनमे था| कहते हैं सच बोलने क़ी वजह से कबीर को हाथी से कुचल कर मार डाला गया|
आज हमारी सरकारें संस्कृति और साहित्य क़ी रक्षा के नाम पर करोड़ों खर्च करने काढिंढोरा पीटती हैं,
परन्तु कवि और साहित्यकारों क़ी दवा का खर्च हम नहीं उठा सकते| मुख्यमंत्री अपने चमचों को दो दो
तीन तीन घर दे सकते है पर नारायण सुर्वे या राममनोहर त्रिपाठी जैसे वन्दनीय कवि और साहित्यकारों को देने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है | यह कैसी शासकीय व्यवस्था है जहाँ शासक अंधा और बहरा है और मंत्रीबेईमान| मैं प्रणाम करता हूँ महाकवि नारायण सुर्वे क़ी आत्मा को , प्रणाम करता हूँ उनके साहित्य को, श्रद्धांजलि देता हूँ उस सूर्य को जो अस्त हो गया , हमारे बीच नहीं रहा| मेरे नए ग़ज़ल संग्रह में मैंने लिखा है......
काश मैं भी कबीर हो जाता
मेरा दिल भी फकीर हो जाता
न होती मेरी जात और पांत
आदमी मैं अमीर हो जाता|
"नमन"
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