Friday 2 July 2010

MERA GAON MERA DESH

जून महीने  का  दूसरा  पखवारा मैंने जौनपुर शहर में बिताया| वो चिलचिलाती धूप , वो गर्मी जो मै अपने बचपन के साथ ही पीछे छोड़ आया था, उन्होंने मुझे फिर अपनी बाँहों में भर लिया|  परन्तु उस तपिश से ज्यादा मै अपनी माटी के  प्यार  की तपिश को महसूस कर रहा था|  उन धूल भरी हवाओं ने मुझे फिर से सहलाया|  मेरे घर के सामने के नीम के दरख्तों ने मुझे छाँव दी|   घर के सामने के आम के पेड़ में पत्तियों से ज्यादा फल लगे थे|   मैंने अपने एक प्रियजन के  विवाह समारोह में भी भाग लिया और उन तमाम घटनाओं का फिर से साक्षी बना जो मेरे विवाह में मेरे साथ कई दशक पहले घटी थी|  वही खेत, वही मेंड़, वही अमराई, वही सईं और गोमती नदियाँ , पर उनमे पानी न पहले जैसा निर्मल , न तो पहले के इतना.....

     कई  बदलाव और  है, अब गाँव , गाँव नहीं रह गया है, एक छोटा शहर होता जा रहा है|  लोग शहर की तरफ पलायन कर रहे है|  गाँव धीरे धीरे मुर्दा हो रहा है|  बरसों पहले गाँव की याद में मैंने कुछ पंक्तिया लिखी थी, आपको शायद ये गाँव की याद दिला सके..........

      ये गाँव तेरी याद सताती है आज भी
      खुशबू तेरी माटी की रुलाती है आज भी|
    
      हम रूठ कर तुझसे शहर आ गए मगर
      दादी तेरे बारे में बताती है आज भी|
  
      वो दोस्तों के साथ मटरगस्ती के रात दिन
      सब याद कर के आँखे भर आती है आज भी|

      वो खेत खलिहानों में बिताये हुए पल
      बहती हुई पुरवाई बुलाती है आज भी!

     गेहूं के लहलहाते खेत धान  की बाली 
     सरसों के पीले फूल याद आते हैं आज भी!

    होली में दोस्तों के साथ रंग खेलना 
    फागुन की यादे सांसें महकाती है आज भी!

    अमराईयों  की  छाँव  और सावन के वो झूले 
    ताज़े गुड की महक ललचाती है आज भी!
                                                                "नमन" 

      

No comments:

Post a Comment