Thursday 23 December 2021

श्मसान में मुर्दे

श्मसान में मुर्दे ,,,,,

कौन सा नंबर है तुम्हारा? श्मशान भूमि में पड़े एक मुर्दे ने पास पड़े दूसरे मुर्दे से पूछा?
मालूम नही, दूसरे ने बेतकल्लुफ़ी से जवाब दिया।
ज़िंदा थे तो क्या करते थे? पहले ने बात आगे बढ़ाई ।
सरकारी अफ़सर था, दूसरे ने जवाब दिया।
अच्छा तो हमारी मौत के ज़िम्मेदार तुम भी हो, पहला मुर्दा बोला।
हाँ! हूँ पर अब समझ कर भी क्या फ़ायदा?
और तुम क्या करते थे?
दूसरे मुर्दे ने पहले से पूँछा?
मैं! मैं पत्रकार था। पहला मुर्दा बोला।
अच्छा तो तुम भी इन मौतों के लिए उतने ही ज़िम्मेदार हो जितना मैं। दूसरा मुर्दा बोला।
तुम्हारे बग़ल में पड़ा हुआ वह दूसरा मुर्दा कौन है? उसने पहले से पूँछा।
कोई संघ का कार्यकर्ता है। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। शाखा में जाते ही उसकी आत्मा मर गई थी। अब सिर्फ़ शरीर मरा है। कह रहा था की महामारी के बहाने से सरकार जनसंख्या नियंत्रण कर रही है।
चुप रहो सालों, बग़ल में पड़ा चौथा मुर्दा चिल्लाया।
साले मरने पर भी चैन नहीं लेने देते। तुम लोगों की वजह से ही हम सब मर कर यहाँ आ गए हैं।
जीते जी जब खेती किसानी करता था तब चैन नहीं लेने दिया अब मरने पर तो चैन से अग्निदाह होने दो।
तुम लोग जिसकी भंडवागीरी करते थे वह नेता भी मरकर श्मसान गंदा करने यहीं आया है।
और उस तरफ़ देखो अन्याय पर अन्याय करने वाले भ्रष्ट जज साहब को, नाले के किनारे पड़े है।
सारे पापी मरकर यहीं आए हैं।
कौन से नम्बर का दाह संस्कार हो रहा है? पहले ने फिर उत्सुकता दिखाई ।
अरे बोला न, मालूम नहीं ।
वैसे भी अब क्या फ़र्क़ पड़ता है?
तुम्हे क्या जल्दी पड़ी है दाह संस्कार की। दूसरा मुर्दा खीझ कर बोला।
ज़िंदा थे तब राशन, टिकट, बैंक की लाइन में घँटों खड़ा रह लेता थे । आज क्या जल्दी है?
उस लाइन में मैं खुद लगता था। यहां हमारे बच्चे लगे हैं लाइन में। पहला मुर्दा धीरे से बोला।
एक काम कर। बजा डाल सबकी। एकदम से नम्बर आएगा।
जब बजा सकता था तब नही बजाई सिस्टम की। काश तब भ्रष्ट नेताओं के ख़िलाफ़ हम बोलते।
तो अब पड़ा रह शांति से। जब नंबर आएगा तब जलाए जाएंगे। अन्याय सहने की सजा यही होती है। जब आदमी अन्याय का विरोध नहीं करता, वह तभी मर जाता है।
तुम्हारी जान कैसे गयी। पहले मुर्दे ने दूसरे से पूछा?
ऑक्सीजन नही मिली।
और तुम्हारी?
मुझे हॉस्पिटल में बेड नही मिली।
कितने सस्ते में मर गए न हम लोग, पहले ने आह भरी। पहला मुर्दा सुबकने लगा।
पहले लड़े होते तो ज़िंदा होते। अब क्या फ़ायदा?
चलो एक अधूरी कविता सुनाता हूँ, पहले मुर्दे ने दूसरे से कहा;
जब खून बहेगा सड़कों पर,
आवाम सताया जाएगा।
नंगा किसान जब संसद पर,
आवाज़ उठाने आएगा।
जब जुल्मों सितम बढ़ जाएगा,
जब झूठ ही सच कहलाएगा।
निर्मम सत्ता के जूतों के तले ,
मजलूमों को कुचला जाएगा।
तब न्याय की देवी की पट्टी
उन आँखों से हट जाएगी।
अन्यायी न्यायाधीशों को,
जनता खुद सबक़ सिखाएगी।
तब केरल से कश्मीर तलक ,
एक जल-जला आएगा।
संसद की दीवारें काँपेंगीं ,
दिल्ली की किल्ली हिलेगी।
सत्ताधीशों की पगड़ी तब
जूतों पर उछाली जाएगी।
तब भ्रष्ट अफ़सरशाही की,
होली जलायी जाएगी।
तब सफेदपोशों के कपड़े
जनता सड़कों पर फाड़ेगी।
तब बलात्कारी नेता को
जनता जूतों से मारेगी।
जब खबरनवीसों की ख़बर
जनता ख़ुद लेगी अच्छे से।
जब भारत फिर से जागेगा,
तब सिस्टम थर थर काँपेगा।
जब भारत फिर से जागेगा।

कविता ख़त्म हुई, पहला मुर्दा बोला। हमारी ज़िन्दगी भी कौन सी बाकी है, सब ख़त्म हो चुका है, अब सिर्फ यादें हैं
चुपचाप पड़े रहो और अपनी बारी का इंतज़ार करो
नमन

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