Thursday, 9 November 2017

जुमला


मैं जुमला हूँ
प्रजातंत्र पर लगातार हो रहा
हमला हूँ

मैं झूठ हूँ
छाया और फल विहीन
पेड़ की ठूंठ हूँ

दंगों से मैली हुई
गंगा हूँ
भ्रष्टाचार के हम्माम में
नंगा हूँ

गाँव की लूट का
इतिहास हूँ
खलिहान में
पेड़ पर लटकी हुई
किसान की लाश हूँ

सीमा पर खड़ा
भूखा प्यासा जवान हूँ
मैं हिंदुस्तान की शान हूँ

मैं अज्ञात हूँ
सिर्फ उनके
मन की बात हूँ

भय हूँ
भ्रम हूँ
बेगार कर रहा श्रम हूँ

जानवरों से भी सस्ती
मेरी जान है
फिर भी मेरे दिल में
हिंदुस्तान है

मैं निर्भया हूँ
सड़कों, घरों और चौराहों पर
नोची-खसोटी
बेची और खरीदी जा रही
तुम्हारी ही
बहन -बेटी -भार्या हूँ

मैं नोटबंदी हूँ
बाजार में आई हुई
मंदी हूँ

मैं जीएसटी हूँ
करों के बोझ से टूट गई
व्यापारियों के
रीढ़ की हड्डी हूँ

मैं
125 करोड़ भारतीयों की
आस हूँ
हाँ, 
मैं पागल हो चुका विकास हूँ
मैं पागल हो चुका विकास हूँ.....
नमन

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