Monday, 4 August 2014

दिल्ली उत्तर प्रदेश में है.....

पिछले दिनों बीजेपी के एक बड़े नेता विजय गोयल ने दिल्ली में उत्तर भारतीयों और बिहारियों का प्रवेश निषिद्ध करने की बात ठीक उसी अंदाज़ में की जैसे किसी रेस्तरां का मालिक कहे की यहाँ कुत्तों का प्रवेश निषिद्ध है.

सत्ता के मद में झूम रहे विजय गोयल अपने बडबोलेपन में भूल गए की दिल्ली खुद उत्तर प्रदेश में बसा हुआ है. यह कुर्सी और ताकत का नशा है जो मौका पाते ही विजय गोयल अपनी औकात पर उतर आये.

विजय गोयल और बीजेपी के अन्य वरिष्ठ नेता भूल रहे हैं की यह सत्ता और सिंहासन भी उन्हें इन्ही उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और झारखंड की जनता ने ही सौंपा है. अगर इन राज्यों ने ११० से अधिक बीजेपी सांसद नहीं चुने होते तो विजय गोयल के आका आज प्रधानमंत्री की कुर्सी पर न बैठे होते. इस सन्दर्भ में मुझे पूर्व प्रधानमंत्री स्व चंद्रशेखरजी द्वारा संसद में कही दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं. यह पंक्तियाँ बीजेपी नेताओं को याद रखनी चाहिए. उन्होंने कहा था....
जिन हाथों में शक्ति भरी है राज तिलक देने की
 उन हाथों में ही ताकत है सिर उतार लेने की.

उससे भी गंभीर बात यह है की आज तक विजय गोयल जी को उनके इस वक्तव्य के लिए न तो प्रधान मंत्री मोदी ने लताड़ा न तो राज नाथ सिंह ने, जब की ये दोनों नेता उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार से चुन कर गए अन्य नपुंसक बीजेपी सांसद तो चुप हैं ही.

इस देश में उत्तर भारत के लोगों की हालत अवधी की कहावत कमजोरे क मेहरारू, गांव भरे क भौजाईजैसी होती जा रही है. कोई भी ‘ऐरा गैरा नत्थू खैरा’ कुछ भी कह कर चला जाता है और उत्तर भारतीय चुप हैं. मैं नहीं कहता की एक मदांध नेता की बात पर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग सडकों पर उतर कर प्रदर्शन करें पर हर गलत बात का उचित विरोध तो होना ही चाहिए.

पिछले दिनों गुजरात के वित्त मंत्री ने भी गुज़रात की आर्थिक बदहाली का दोष उत्तरभारतीयों और बिहारियों को दिया था. 

ऐसे ही मुंबई में दो भाई राजनैतिक विरासत के लिए लड़ते हैं और निशाने पर है उत्तर भारतीय. अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए उत्तर भारतीयों के खिलाफ विष वमन करके, कमजोर टैक्सी चालकों, हाथ गाडी वालों, सब्जी बेचने वालों, मजदूरों और निरीह विद्यार्थियों के खिलाफ हिंसा से ये लोग क्या साबित करना चाहते हैं?

लगभग ७ साल पहले कल्याण स्टेसन पर रेलवे में भरती के लिए इम्तिहान देने आये विद्यार्थियों की मारपीट से शुरू हुआ सिलसिला आगे बढ़ कर कितने जान माल के नुकसान का कारण बना यह दोहराने की जरुरत यहाँ नहीं है. मध्य रेलवे का क्षेत्र अलाहाबाद के पास नैनी स्टेशन(उ.प्र.) से शुरू होकर मध्यप्रदेश होता हुआ मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस तक आता है. परन्तु इन लोगों का कहना है की उत्तर भारतीय हिंदी भाषी छात्र मध्य रेलवे की नौकरियों के लिए इम्तिहान देने मुंबई नहीं आ सकता. अतः कुछ लोग परीक्षा केन्द्रों में घुस कर हिंदी भाषी छात्रों से मारपीट करते हैं और महाराष्ट्र पुलिस मूक दर्शक बन कर कड़ी रह जाती है. यह कृत्य उत्तर भारतीय अस्मिता पर कितना बड़ा आघात है यह बताने की जरूरत नहीं.

कुकुरमुत्तों की तरह उगी उत्तर भारतीय संस्थाए और उनके स्वयंभू नेता ऐसे मौकों पर गधे के सिर के सींग जैसे गायब हो जाते हैं. उत्तर भारतीय संघ, मुंबई से लेकर उत्तर भारतीय समाज कल्याण परिषद्, कल्याण, उत्तर भारतीय एकता मंच, मुंबई जैसी उत्तर भारतीय संस्थाओं ने उत्तर भारतीयों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ न कोई आन्दोलन चलाये न कोई ऐसे कदम उठाये जिससे गरीब उत्तर भारतीय मुम्बईकर को दिलासा मिल सके. 

महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार अपना वोट बैंक बचाने की राजनीती में ढुलमुल रवैया अपनाती रही है. राष्ट्रवादी कांग्रेस के लिए तो उत्तर भारतीय-हिंदी भाषी शिव सेना और मनसे से ज्यादा अछूत हैं. 
  
कुछ लोग मुंबई को अपनी बपौती बताने पर तुले हैं. उन्हें अपने गिरेबान में झाँक कर देखने की जरुरत है. मुंबई के विकास में उत्तर भारतीयों का खून पसीना भी लगा हुआ है. आप इन्हें परप्रांतीय कह कर खारिज नहीं कर सकते.
           
एक सज्जन हर सुबह उठ कर दादर और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर उत्तर भारत से आने वाली गाड़ियों से आने वाले उत्तर भारतीयों की गिनती में लग जाते हैं. शाम को चिल्लाकर कहते हैं की मुंबई में उत्तर भारतीयों के रेले के रेले, रेल से चले आ रहे हैं इन्हें रोकना होगा.

 मैं इन सज्जन से पूंछना चाहूँगा की भाई मेरे अगर इतने लोग, इतनी भीड़ लगातार चली आ रही है तो मुंबई की आबादी बढ़ने की जगह घट क्यों रही है. २००१ की जनगणना में मुंबई की आबादी १करोड २०लाख थी जो २०११ में बढ़ कर १करोड २४लाख हो गयी. यानी १० साल में मुंबई की आबादी मात्र ४ लाख बढ़ी. १करोड़ २० लाख की आबादी यानी लगभग ३० लाख परिवार २००१ में मुंबई में रहते थे. इन ३० लाख परिवारों में से आधे यानी १५लाख परवारों में १० साल में १ औलाद अवश्य पैदा हुयी होगी. तो अगर सिर्फ इन १५ लाख बच्चों को जोड़े तो मुंबई की आबादी २०११ में १करोड २०लाख + १५ लाख= १करोड ३५ लाख होनी चाहिए. परन्तु २०११ की जनगणना में मुंबई की आबादी सिर्फ १करोड २४ लाख मिली. इसका मतलब है की १० साल में मुंबई से कम से कम ११ लाख लोग बाहर चले गए. फिर भी शोर मच रहा है की लोग चले आ रहे हैं. 

भाई मेरे क्षुद्र राजनीतिके लिए देश मत बांटो. इन्हें उत्तर भारत की खानों से आने वाला लोहा, अल्युमिनियम, कोयला इत्यादि चाहिए, उत्तर भारत के उद्योगपतियों का निवेश चाहिए, वहां के इंजिनियर, डॉ, वैज्ञानिक चाहिए, बस मजदूर नहीं आने चाहिए. सो वे आना बंद हो गए. मजदूरों के अभाव में अब यहाँ के उद्योग बंद हो रहे हैं. नवी मुंबई, नाशिक, पुणे, उल्हासनगर के कितने ही उद्योग बंद पड़े हैं.

 जो शहर, राज्य या देश अपने यहाँ बाहर से आने वाले मानव संसाधन (प्रवासियों) पर रोक लगाने का प्रयत्न करता है उसका विकास रुक जाता है. विश्व का सबसे धनी और विकसित देश अमेरिका इसका उत्र्किष्ट उदहारण है, जो प्रवासियों का देश है. अगर स्वतंत्र भारत का इतिहास देखे तो आप पाएंगे की १९६० के दशक तक कलकत्ता देश का सबसे बड़ा औद्योगिक शहर था, मुंबई न २ पर था. बाद के सालों में कम्युनिस्ट आंदोलनों विशेषकर मार्क्सवादी उग्रवादी संगठनों से परेशान होकर उद्योगपतियों जिनमे अधिकाँश मारवाडी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के थे, इन सब व्यापारियों ने मुंबई का रुख किया और सिर्फ डेढ़ दशक जाते जाते मुंबई देश की औद्योगिक राजधानी बन गया.

१९९० के दशक में दत्ता सामंत की यूनियनों ने मुबई की गिरनियों में ताले लगवा दिए और ये सारे उद्योग गुजरात चले गए. फिर धीरे धीरे यहाँ के राजनेताओं के विपरीत रुख के कारण केमिकल उद्योग ने भी गुजरात का रुख किया जो गुजरात के आद्योगिक विकास का कारण बना. आज अगर मोदी गुज़रात गुजरात जप रहे हैं तो गुजरात विकास के मूल में मुंबई के यही राजनीतिग्य हैं. जिन्होंने महाराष्ट्र का बहुत बड़ा नुकसान किया है. अब भी उत्तर भारतीय विरुद्ध महाराष्ट्रीयन की राजनीती महाराष्ट्र का बहुत बड़ा नुकसान कर रही है.

जाते जाते मैं एक बात का और उल्लेख कर दूँ की जो नेता मुंबई और महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय जनसंख्या की बात करते हैं वे कृपया उत्तर भारत के राज्यों में जाकर देखे. जितनी संख्या में उत्तर भारतीय मुंबई में हैं, उससे अधिक संख्या में महाराष्ट्रीयन मूल के लोग उत्तर भारत के शहरों में निवास करते हैं. उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री स्व गोविन्द वल्लभ पन्त से लेकर आज मुरली मनोहर जोशी तक के किसी नेता को उत्तर भारतीयों ने बाहरी नहीं कहा. अब जाती, धर्म, प्रांतवाद की राजनीती बंद करने का वक्त आ गया है, यही राष्ट्र और महाराष्ट्र दोनों के हित में है.
 आपका,

नमन 

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