शहर के मुख्य बाज़ार में
अचानक वो मुझसे टकराई
मैंने मुड़ कर देखा
पहचाना और पूंछा
दीपावली बहन ....
तुम बाज़ार में क्या कर रही हो
तुम्हे तो घर आना था
इन्तजार कर रहे हैं सब
माँ ने जलाये हैं तुम्हारी राह में
घी के न सही तेल के कुछ दीपक
पत्नी ने द्वार पर रची है
रंगोली -तुम्हारे स्वागत में
बच्चों ने सस्ते सही
पर पहने हैं नए कपड़े
बने हैं घर पर कुछ पकवान
भले कर्ज का बोझ
थोडा बढ़ गया है मुझ पर .....
दीपावली धीरे से सकुचाकर बोली,
भाई तुम्हारी दीपावली
अब तुम्हारी नहीं रही ....
अब वो सेठों और साहूकारों
के घर की रानी है .....
नेताओं और अधिकारियो
के घर की शोभा है ......
उद्योगपतियों और दलालों
के घर की रौनक है ....
अब मेरे लिए
अपने उस किसान और मजदूर भाई
के घर की सीढियाँ चढ़ना मना है .....
जिसके खून और पसीने से
बना है महल
नेताओं, उद्योगपतियों , सेठों
और साहूकारों का ........
'नमन'
Sundar rachna....abhaar aur badhai bade bhai
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