सत्ता की शतरंज
सत्ता की शतरंज बिछी है, शकुनि घात लगाए हैं
प्रजा दांव पर लगी हुई है, कौरव दृष्टि जमाये है।
कौरव दोषी हैं लेकिन क्या
धर्मराज कम दोषी हैं
राम भरोसे छोड़ प्रजा को, चौसर मे भरमाए हैं।
का-पुरुषों की नगरी दिल्ली खडयंत्रों
की नगरी है
गली-गली मे जयचंदों ने, अपने जाल बिछाए हैं।
मंत्री-संतरी चाटुकार हैं, लोभी और लालची हैं
रक्षक ही अब भक्षक बनकर, प्रजा को लूटे-खाये हैं।
रोज यहाँ ईमान बिक रहा, न्याय बिके है कौड़ी मे
देश की बोली लगी हुयी है, पांडव शीश झुकाये हैं।
चीरहरण सड़कों पर नित ही करता
आज दुशासन है
सत्ता के सिंहासन पर, हमने धृतराष्ट्र बिठाये हैं।
कौन जगाए आज भीम को, भीष्म निठल्ले बैठे हैं
अर्जुन की नज़रें नीची हैं, वे खुद पर शरमाये हैं।
कृष्ण कहाँ हो? बनो सारथी, दुष्टों का संहार
करो
बोझ कम करो धरती का अब, भारत माँ थर्राए है।
‘नमन’
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